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इश्क में जब हम ख़ुदी को भूलते हैं…

इश्क में जब हम ख़ुदी को भूलते हैं
बन्दगी में, ज़िन्दगी को भूलते हैं

क्या भयानक बाढ़ ये लाती रही है
शह्र में जब हम नदी को भूलते हैं

ये सिफ़त अपनी रही है दोस्तो कुछ
काम में हम, हर किसी को भूलते हैं

सिफ़त=विशेषता

काम से रखते जो दूरी ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी भर वो ख़ुशी को भूलते हैं

आसमानी रहमतों की चाहतों में
हम धरा की रोशनी को भूलते हैं

देखकर इक घोंसला सुन्दर, सुरक्षित
आधुनिक कारीगरी को भूलते हैं

नासमझ कितने हैं वो सोचो तो ‘शेखर’
लम्हे के आगे सदी को भूलते हैं

लम्हा=पल, क्षण

– वीरेन्द्र कुमार शेखर

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